।। हार मान के बैठा था ।।
।। हार मान के बैठा था ।।
छुप जाना था अंधकार में सब कुछ और मैं
हार मान के बैठा था।
अंधकार सब ढक लेता तब मैं
हार मान के बैठा था।
अग्नि धूँ-धूँ कर जलती थी और मैं
हार मान के बैठा था।
कैसा वो काला साया उभरा तब मैं
हार मान के बैठा था।
उठा लहराया रात में काला साया तब मैं
हार मान के बैठा था।
पर वो मेरा कल था जब मैं
हार मान के बैठा था।
पर आया वो उजियारा बन कर जब मैं
हार मान के बैठा था।
यूँ ही उसने समझाया मुझको कि मैं व्यर्थ ही
हार मान के बैठा था।
उससे मिलने पर आभास हुआ कि मैं व्यर्थ ही
हार मान के बैठा था।
जीवन चलते रहने का नाम बने
फिर कष्ट मिले या आराम मिले
रुक जाना जल को भी मंज़ूर नहीं
फिर कितनी भी कठिन राह मिले
और मैं चल सकता था पर फिर भी मैं
हार मान के बैठा था।
अब सोच रहा कि गलत किया जो मैं
हार मान के बैठा था।
पर अब उठना है फिर चलना है
अब और नहीं सुनना मुझको कि मैं
हार मान के बैठा था।
अब और नहीं सुनना मुझको कि मैं
हार मान के बैठा था।
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