।। पागलपन ।।
।। पागलपन ।।
वो पिघलना बाहों में तेरी आकर
कोई सुरूर नही एक पागलपन है
लिखते-लिखते एक उम्र का बीत जाना
कोई सुरूर नहीं एक पागलपन है
और तेरी ज़ुल्फो का खुलना मुझे देखकर
और फिर बिखर जाना
कोई सुरूर नहीं एक पागलपन है
और ये जानते हुए भी कि जाएगी ये जान एक दिन
सरहद पर हंसते-हंसते चले जाना
कोई सुरूर नहीं एक पागलपन है
कि उसे अपनी मिट्टी की महक़ इतनी सुहानी लगी
और उस सोंधी सी महक़ के लिए मर जाना
कोई सुरूर नहीं एक पागलपन है
इस पागलपन को क्या कहूँ मैं, मिट्टी देश की उसे अपनी माँ सी लगी
और इसी पागलपन के लिए मिट जाना
कोई सुरूर नहीं एक पागलपन है
बिखरे पड़े थे कुछ पन्ने तेरी राहों में
ऐ सरज़मीं, के तेरा जन्नत में भी याद आना
कोई सुरूर नहीं एक पागलपन है
तेरा जन्नत में भी याद आना
कोई सुरूर नहीं एक पागलपन है
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