।। न बस न ट्रेन ।।

।। न बस न ट्रेन ।।


एक बार,
वो चल पड़ा था।
गांव से दूर,
शहर की तरफ़,
अपनी मंज़िल की तलाश में।
चला आया
शहर 
तलाशने अपने अस्तित्व को।
चला आया शहर,
गांव को लपेटे,
अपने गमछे के अंदर।
चला आया शहर,
गांव को अपनी
भाषा में समेटे।
सोचा था
स्वीकारेगा शहर
इस गांव के बाशिंदे को।
सोचा था
देगा शहर
पेट भरने को रोटी।
सोचा था
संवरेगा
बच्चों का भविष्य।

आंखों में
छलकती थीं
आशा की किरणें।
बेहद खुश था
जब पहुंचा
शहर को।
खुश हुआ
जब मिला रोज़गार।
लगा उसे
कि अब संवर जाएगा उसका घर संसार।
आया वो दिन,
जिस दिन मिलनी थी उसे पहली पगार।
धीरे-धीरे सीख गया
भाषा शहर की।
गांव जाता तो
बताता शहर के
ठाट-बाट।
दिखाता रुआब
जैसे राजा हो 
शहर का।
हाँ
लगती थी कम
उसको अपनी पगार।
फिर भी
खुश था
कि चल जाता था
उसका भी घर संसार।

लेकिन
एक बार
उसे चलना पड़ा।
पीछे
वापस अपने गांव की तरफ।
क्योंकि
विपदा थी भारी।
शहर अब 
नहीं दे पा रहा था।
न रोटी 
न मकान।

इस बार
चलना पड़ा उसे
वापस
अपने पैरों के सहारे।
शहर अब 
नहीं दे पा रहा था।
न बस
न ट्रेन।

इस बार
चलना पड़ा उसे 
वापस 
अपने बच्चों को उठाये
गोद मे
या पैदल।
शहर अब
नही दे पा रहा था।
न बिस्तर
न झूला।
न बस
न ट्रेन।
न बिस्तर
न झूला।
न बस 
न ट्रेन।

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