।। मज़दूर नहीं है वो ।।

।। मज़दूर नहीं है वो ।।



मज़दूर नहीं है वो
मजबूर कहो उसको
ठहरा हुआ है दूर अपने घर से
दो वक्त की रोज़ी के लिए
बनाता रहता है 
कभी तुम्हारे
कभी हमारे घर
तो कभी अस्पताल
तो कभी कारखाने
और कभी उगाता हैं अनाज
सब कुछ तुम्हारे या हमारे लिए
या देश के लिए।
कल दिखा था मुझे एक
थोड़ा डरा हुआ
थोड़ा सहमा सा
लगता था जैसे ठगा गया हो
पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती थी
कि क्या कारण है उदासी का
क्योंकि शायद जानता था जवाब,
हो सकता है कि किसी ने मार ली हो मज़दूरी,
या फिर दी हो आधी-अधूरी,
या घर में रहा हो कोई बीमार,
और न रहे हो पैसे इलाज के लिए,
या हो सकता है लड़की के दहेज के पैसे न हों पास,
या बच्चों की पढ़ाई लग रही हो महंगी,
पता था कि ऎसे ही कुछ कारण होंगे।
फिर भी हिम्मत जुटाकर पूछा
कि क्या है बात
क्यों हो परेशान
वो रो पड़ा
बोला साहब पैसे न देते तो चलता
मगर मारने की ज़रूरत क्या थी
मैंने दस दिन की दिहाड़ी ही तो मांगी थी,
इतने दिन काम लिया
जब भी पैसे मांगे कल पर टाल दिया
और आखिर में पैसे दिये बिना ही निकाल दिया,
अब कहाँ जाऊं
कैसे जाऊं घर बिना पैसे
क्या खिलाऊँ बच्चों को?
मैं आहत हुआ
पूछा पुलिस के पास नहीं गए
वो बोला गया था साहब पर वो घूस के पैसे चाहता था
खैर मैंने कुछ पैसे दिए उसको
और कहा जाओ अभी के लिए यह रखो
वो चला तो गया
पर मेरे दिल में कहीं एक मायूसी भी छोड़ गया
क्या कहूँ उसको
मज़दूर या मजबूर
ज़रूर वो मजबूर है
सोचना होगा एक बार और,
क्यों है वो मजबूर
क्यों लड़ नहीं पाता वो अपने अधिकारों के लिए
क्यों हमेशा उसी की हार होती है?
बात कानूनों की है ही नहीं
बात है कमज़ोर और ताकतवर की
बात है अमीर की और गरीब की
इसीलिए वो मज़दूर नहीं मजबूर है
मज़दूर नहीं है वो
मजबूर कहो उसको

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