।। माया में रत ।।
।। माया में रत ।।
अनवरत चलता
वो
माया में रत।
मानव
कुटिल हुआ
यूँ
माया में रत।
माया पिशाचिनी
माया संघारणी
मानव
धुमिल हुआ
यूँ
माया में रत।
छाया अंधकार
यूँ माया के कारण
मानव यूँ क़ैद हुआ
माया में रत।
कर्तव्य जिसे समझ रहा
खुद को जाने बिना
मानव यूँ
भटक गया
बस
माया में रत।
भटकते-भटकते
अब बीत गए
कई-कई जनम
मानव यूँ भूल गया
अपना स्वभाव
माया में रत।
आया जब भी ख़याल
कि जागे
जागे स्वप्न तोड़
फिर भाया माया का संसार
मानव यूँ फिर भटका
माया में रत।
बुद्ध के आह्वाहन को
महावीर की दृष्टि को
सबको ये भूल गया
माया में रत।
पर माया का संसार भी
हक़ीक़त है
दुख हो
या सुख भोगे,
मानव तो
जीता ही रहता है
माया में रत।
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