।। वो मिटता ही है ।।
।। वो मिटता ही है ।।
मरती हुई रूढ़ियों ने पूछा,
पूछा नए ज़माने से
कि तुम क्यों आए?
क्यों आये?
और क्यों लाए
मेरे लिए पैग़ाम,
पैग़ाम मेरी मौत का,
पैग़ाम बदलाव का,
क्यों लाये?
क्यों लाए ये मोगरे की खुशबू,
क्यों लाए ये नई बयार,
ये नयापन,
तुम्हें क्या मुझसे थोड़ा भी लगाव न था?
रूढ़ियाँ उदास थीं।
देखा नए ज़माने ने,
बोला
मैं तुम्हारे लिए नहीं आया,
मेरा आना और तुम्हारा मिट जाना
ये मेरा नहीं तुम्हारा स्वभाव है।
मैं जब आता हूँ
तो तुम खुद को अकेला पाते हो
क्योंकि तुम बेड़ियों के समान हो
और मैं स्वच्छंद हवा के जैसा,
तुम घुटन हो
और मैं कटी पतंग जैसा।
हवाएँ कितनी भी चलें
तुम वहीं रहते हो,
और मैं खोल अपने पंख उड़ जाता हूँ,
पवन जैसा।
तुम अकड़े रहते हो,
ये सोच कर कि तुम ही सच हो
और बाक़ी सब झूठ,
और मैं बदलता रहता हूँ
पतझड़ से बसंत जैसा।
तुम्हारा मरना तुम्हारे कारण है,
सड़ता ही है वो पानी जो रुक जाता है।
तुम रुके ही क्यों?
पूछो कभी अपने-आप से।
क्यों जड़ हो गए?
देखो अपने-आप को।
वो मिटता ही है
जो बदलता नहीं,
जो चलता नहीं समय के साथ।
वो मिटता ही है
जो सीख नहीं पाता,
सीख नहीं पाता समय के साथ चलना।
वो मिटता ही है
जो मानता है अपने-आप को सर्वोपरि,
जीता है भृम में अपने सर्वश्रेष्ठ होने के।
वो मिटता ही है
वो मिटता ही है
वो मिटता ही है।
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