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।। धुआँ-धुआँ ।।

  ।। धुआं-धुआं ।। धुआं, राख, सब दिखता है लेकिन कुछ जो मेरे अंदर जल रहा है कुछ जो मेरे अंदर ख़त्म हो रहा है वो नहीं दिखता नहीं दिखता किसी को नहीं दिखता धुआं, राख, सब दिखता है लेकिन वो नहीं दिखता जो दबा है इस राख़ के नीचे जो छिपा है इस धुएँ के पीछे नहीं दिखती मेरी बेबसी नहीं दिखती मेरी तन्हाई नहीं दिखती  किसी को नहीं दिखती धुआं, राख, सब दिखता है लेकिन दबे हुए कोयले की तपन भूले हुए एहसासों की तपिश देख करके भी अनदेखी रह जाती है वो तपिश नहीं दिखती किसी को नहीं दिखती #धुआँ #authornitin #poem #poetry #hindikavita 

।। बाक़ी है अभी ।।

  ।। बाक़ी है अभी ।। आज की रात बाकी है अभी पूरे जस्बात बाकी हैं अभी मंज़र ठहरा है थोड़ा सा खयालों में तेरे लेकिन पूरे ख़यालात बाक़ी हैं अभी रुख़ से पर्दा हटे तो तूफ़ान आ जाये पूरा का पूरा शबाब बाकी है अभी ख़ैरियत पूछने मत जाइए उनसे दुख का सैलाब बाक़ी है अभी और वो रो ही देते तेरे आने से पहले पर वो ज़रूरी मुलाक़ात बाक़ी है अभी वो ज़र्रा ही समझ के बैठे थे हमें पर ज़र्रे का ख़ुदा हो जाना बाकी है अभी वक़्त तुमपे यूँ ही मेहरबान था शायद थोड़ा वक्त का ज़ालिम हो जाना बाक़ी है अभी रुख का तबस्सुम बड़ा घायल करता है हमें पर तेरा मुस्कुराना बाक़ी है अभी #authornitin #poem #poetry #बाक़ी_है_अभी 

।। वज़ूद की खातिर ।।

  ।। वजूद की खातिर ।। परेशान हूँ अपने वजूद की खातिर जो रोज़ मिटता चला जाता है। वक़्त ठहरता ही नहीं, बस इक दरिया की तरह बहता चला जाता है। खबर कल तक़ ये थी हवाओं में कि वो कुछ वजूद रखते हैं, अभी तख्तनशीं हैं अपने होने का गुरूर रखते हैं, पर आज वक़्त ने करवट ली है उन्हें खुद के होने पर भी शक़ हो चला है। परेशान हूँ अपने वजूद की खातिर जो रोज़ मिटता चला जाता है। कभी देखता हूँ दर्पण में दिखता है वज़ूद अपना, सोचता हूँ क्या यही हूँ मैं मेरी परछाई ही क्या मेरी सच्चाई है? खोजता हूँ फिर वज़ूद अपना खामोशी से कभी यहां तो कभी वहाँ। बस कल मिलने ही वाला था उससे, लेकिन गुरुर ने फिर दस्तक़ दी और फिर से भटक गया मैं खो दिया फिर से अपने वजूद को। परेशान हूँ अपने वजूद की खातिर जो रोज़ मिटता चला जाता है। इसी तरह रोज़ दस्तक़ देता है गुरूर मेरा, रोज़ हर रोज़ कुछ इस तरह थोड़ा-थोड़ा मिटता रहता है वज़ूद मेरा। बढ़ता रहता है गुरुर का दायरा और अपना ही दम घोटता रहता है अपने ही हाथों वज़ूद मेरा। और मैं ही क्यों वो भी ऐसे ही हैं ऐसे ही हैं वो बल्कि हम सब खोजते हैं अपना-अपना वजूद, अपने ही गुरुर के अंदर अपने ही गुरुर के सहारे। और रोज़ हर र...

।। क्यों लिखना ।।

  ।। क्यों लिखना ।। दीवारों पर  दहलीज़ों पर क्यों लिखना  अपना नाम कहो? क्यों मिटने को बेताब नहीं? क्यों हो जाना अपना काल कहो? जो मिटने को  तैयार नहीं बस वही  मिट जाया करते हैं। जो मिटने को तैयार हुए वो ही बस अमिट हो जाया करते हैं। तो फिर क्यों लिखना अपना नाम कहो? कुछ होने की ये कोशिश क्यों? क्यों कहना मैं ये मैं वो? क्यों सहना ये सन्ताप कहो? दीवारों पर  दहलीज़ों पर क्यों लिखना  अपना नाम कहो? #authornitin #poem #poetry #क्यों_लिखना 

।। कीलों की खेती ।।

  ।। कीलों की खेती ।। बदस्तूर जारी है तेरा कीलों के बीच रेंगना कुछ बिछाई है तूने कुछ हम उखाड़ फेकेंगे तेरी सोच की ऊँचाई बस इतनी ही निकली कि कीलें तुझे पहाड़ नज़र आईं तुझे लगा तू रोक लेगा हमें कीलों के पहाड़ से पर हमारा आना बदस्तूर जारी है सोच के देख कि सोच कितनी छोटी है तेरी अपनों के रास्तों में भी तू कीलें बिछाता है राहें दिखाने की उम्मीद किये बैठे थे लोग जिससे, वो राहों को रोकने में मशगूल नज़र आता है होते-होते होती है दुश्मनी इस क़दर कि तुझे मेरा नुकसान ही अपना फ़ायदा नज़र आता है रास्ते सारे नाख़ुश हैं आज तुझसे कि मंज़िलों पर बस तू ही नज़र आता है देखेंगे ये सारे रास्ते एक दिन तेरी हार भी कि तेरा सिर्फ़ मंज़िलों पर नज़र रखना गिराता है तुझे गिराता है तुझे हर रास्ते कि नज़रों से तेरा वजूद मिटता हुआ साफ नज़र आता है नज़र आता है कि मिट रही है तेरी हस्ती बड़ी तेजी से तभी तो तू इतना बेचैन नज़र आता है नज़र आता है कि मिट रही है तेरी हस्ती बड़ी तेजी से तभी तो तू इतना बेचैन नज़र आता है #authornitin #poem #poetry

।। देश अभी बिका नहीं ।।

  ।। देश अभी बिका नहीं ।। बेच कर अपनी शराफत वो कहते हैं देश अभी बिका नहीं बिका है तो बस ज़मीर पर देश अभी बिका नहीं सैलाब आंसुओं के बस आयें है अभी-2 राज़ ये है कि आंसू हुक़ूमत ने दिए हैं बिकी हैं तो बस मुस्कुराहटें हाँ देश अभी बिका नहीं बिका है तो बस सुकून अब पर देश अभी बिका नहीं कहर बदस्तूर जारी है हुक्मरानों का दस्तूर-ए-राजधानी बदला नहीं करता बस कुर्सी पर कोई और आया है पर देश अभी बिका नहीं बस कुर्सी पर कोई और आया है पर देश अभी बिका नहीं #authornitin #poem #poetry 

।। साहब फ़क़ीर थे ।।

  ।। साहब फ़क़ीर थे ।। वो देश को बेचते चले गए। क्या करें! साहब फ़क़ीर थे। अपना ज़मीर बेचते चले गए। बहुत कुछ मिला उन्हें बेचने के काबिल। क्या करें! साहब फ़क़ीर थे। जो मिला वो बेचते चले गए। एक ज़मीर की औक़ात ही क्या। क्या करें! साहब फ़क़ीर थे। बदस्तूर वो देश ही बेचते चले गए। किसान हो या मज़दूर उन्हें बस बेचने से मतलब। क्या करें! साहब फ़क़ीर थे। उनके पसीने से निकला नमक भी वो बेचते चले गए। किसी ने संजोए थे ख्वाब कि लाएंगे वो खुशहाली। क्या करें! साहब फ़क़ीर थे। खुशहाली को फ़क़ीरी के नाम पर वो बेचते चले गए। रंग लाईं तेल की बढ़ती कीमतें। क्या करें! साहब फ़क़ीर थे। टैक्स बढ़ा कर वो तेल बेचते चले गए। #authornitin #poem #poetry