।। वज़ूद की खातिर ।।
।। वजूद की खातिर ।।
परेशान हूँ अपने वजूद की खातिर
जो रोज़ मिटता चला जाता है।
वक़्त ठहरता ही नहीं,
बस इक दरिया की तरह
बहता चला जाता है।
खबर कल तक़ ये थी हवाओं में
कि वो कुछ वजूद रखते हैं,
अभी तख्तनशीं हैं
अपने होने का गुरूर रखते हैं,
पर आज वक़्त ने करवट ली है
उन्हें खुद के होने पर भी शक़ हो चला है।
परेशान हूँ अपने वजूद की खातिर
जो रोज़ मिटता चला जाता है।
कभी देखता हूँ दर्पण में
दिखता है वज़ूद अपना,
सोचता हूँ क्या यही हूँ मैं
मेरी परछाई ही क्या मेरी सच्चाई है?
खोजता हूँ फिर वज़ूद अपना
खामोशी से कभी यहां तो कभी वहाँ।
बस कल मिलने ही वाला था उससे,
लेकिन गुरुर ने फिर दस्तक़ दी
और फिर से भटक गया मैं
खो दिया फिर से अपने वजूद को।
परेशान हूँ अपने वजूद की खातिर
जो रोज़ मिटता चला जाता है।
इसी तरह रोज़ दस्तक़ देता है गुरूर मेरा,
रोज़ हर रोज़ कुछ इस तरह
थोड़ा-थोड़ा मिटता रहता है वज़ूद मेरा।
बढ़ता रहता है गुरुर का दायरा
और अपना ही दम घोटता रहता है
अपने ही हाथों वज़ूद मेरा।
और मैं ही क्यों वो भी ऐसे ही हैं
ऐसे ही हैं वो बल्कि हम सब
खोजते हैं अपना-अपना वजूद,
अपने ही गुरुर के अंदर
अपने ही गुरुर के सहारे।
और रोज़ हर रोज़ कुछ इसी तरह
थोड़ा-थोड़ा मिटता जाता है
मिटता जाता है वो जो सबसे अहम है।
जीतता जाता है गुरुर
और इसीलिए
परेशान हूँ अपने वजूद की खातिर
जो रोज़ मिटता चला जाता है।
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