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।। गिद्ध ।।

।। गिद्ध ।। गिद्धों ने  कुछ नोचा कुछ खाया चोंच से  वाह बोला डाली नज़र  सामने पड़ी  लाशों पर। आंखें सेकी लाशों को देख कर खुश हुआ फिर जाम उठाया अपनी पार्टी में शामिल किए और गिद्ध खूब नोचा खूब खाया मरते लोगों को दिया लालच खाने का और फिर  सत्ता में आया। लाशों ने दिया फिर से गिद्धों को ही वोट फिर दिया मौका खाने का लाशों को। और लाशों ने फिर दिया मौका गिद्धों को। गिद्धों ने फिर कुछ नोचा कुछ खाया। ये सिलसिला यूँ ही चलता आया। #गिद्ध #authornitin #poem #poetry 

।। इंक़लाब ।।

।। इंक़लाब ।। इंक़लाब ने बदस्तूर ज़ारी रखा है सफर हुक़ूमत कभी समझती ही नहीं सोचती है के बिखर जाएंगे इंक़लाब लाने वाले मगर जिसको मोहब्बत है  इंक़लाब होने से वो बिखरते नहीं पैदा करते हैं और इंक़लाब। इंक़लाबी वो नही जो कत्ल करता है औरों का बल्कि इंक़लाबी वो है जो जगा दे आस  के अभी इंक़लाब बाक़ी है के बाक़ी है अभी इंसाफ होना और इंसाफ दिलाएगा ये इंक़लाब। इंक़लाबी वही है जो जगा दे आस। जो सोचते हैं के हिंसा से ला सकते हैं इंक़लाब, वो नासमझ हैं क्योंकि किसी का हक़ मारकर इंक़लाब नहीं पैदा होता। हक़ मारकर पैदा होता है तो एक बटा हुआ समाज, पैदा होता है एक बर्बाद घर, पैदा होते हैं बिखरे हुए लोग, पैदा होती है जहालत, पैदा होती है खुदगर्ज़ी, पैदा होते हैं गुमराह करने वाले नेता। इसलिये इंक़लाब अगर ज़रूरी है तो कर तो बढ़ा हाथ साथ ले औरो का जगा उन्हें कर इंक़लाब। पर ऐसा कि मोहब्बत पैदा हो कर इंक़लाब मगर ऐसा कि मिटे जहालत कर इंक़लाब मगर ऐसा कि तरक़्क़ी  पैदा हो कर इंक़लाब और साबित कर के मोहब्बत ही सबसे बड़ा इंक़लाब...

।। राजतंत्र ।।

ये राजतंत्र है कौन कहता है कि ये लोकतंत्र है ये राजतंत्र है। देखता हूँ रोज़ हाथ जोड़े खड़े उस किसान को खड़ा रहता है सामने एक राजनेता के। देखता हूँ रोज़ हाथ जोड़े उस जवान को खड़ा रहता है सामने एक राजनेता के। ये राजतंत्र है कौन कहता है कि ये लोकतंत्र है ये राजतंत्र है। देखता हूँ रोज़ बिखरते फूलों को किसी की राहों में बिखर जाते है राहों में एक राजनेता की। देखता हूँ रोज़ बिखरते आँसुओ को किसी की राहों मे बिखर जाते है राहों में एक राजनेता की। ये राजतंत्र है कौन कहता है कि ये लोकतंत्र है ये राजतंत्र है। कोई सुनवाई नही होती यहाँ पर खुले घूमते है भेड़िये भेड़ों को छेड़ते हुए। कोई सुनवाई नही होती यहाँ पर खुले घूमते है भेड़िये सबूतों के अभावों में। ये राजतंत्र है कौन कहता है कि ये लोकतंत्र है ये राजतंत्र है। राजाओं सी शान लिए फिरते हैं ये लोकतांत्रिक नेता हाथ जोड़ लेते है कभी-कभी चुनावों में। राजाओं सी शान लिए फिरते हैं ये लोकतांत्रिक नेता सर झुका लेते है कभी-कभी चुनावों में। ये राजतंत्र है कौन कहता है कि ये लोकतंत्र है ये राजतंत्र है। सोच लेते हैं कि एहसान किया इन कीड़ो मकोड़ों पर पै...

।। जीती शराब ।।

।। जीती शराब ।। शराब! रोटी! की लड़ाई…? जीती शराब। मैखाने खुले शराब छलकी  बहुत दिनों से बंद बोतलों से। बहके कदम भूले वो रास्ते जहाँ जा कर खिलानी थी गरीब को रोटी, उन्ही पैसों से जिससे आई, शराब! हारी रोटी जीती शराब। भीड़  जो बन्द थी इतने दिनों से घरों में। जो लड़ रही थी  लड़ाई  देश को बचाने की। आई बाहर। हारी भीड़ जीती शराब। हारी रोटी जीती शराब। हारी रोटी  जीती शराब। #जीती_शराब #author_nitin #poem #poetry 

।। सावधान ।।

।। सावधान ।। सावधान! नेताजी गम्भीर हैं, बेहद गम्भीर! उन्होंने आज सफेद मास्क पहना सफेद जैकेट के ऊपर फैशन का रख रहें हैं पूरा खयाल। नेताजी गम्भीर हैं, बेहद गम्भीर! आपको बात समझ में नहीं आई कोई बात नहीं शाम पांच बजे पांच मिनट तक पांच बार सोचिए। समझ में आ जायेगी फिर भी नहीं समझ आई कोई बात नहीं रात नौ बजे नौ मिनट तक नौ बार फिर सोचिए समझ में आ जायेगी फिर भी समझ में नहीं आई कोई बात नहीं नए टास्क का इंतज़ार करिये। क्योंकि,  नेताजी गम्भीर हैं बेहद गम्भीर! #authornitin #poem #poetry #सावधान 

।। मज़दूर नहीं है वो ।।

।। मज़दूर नहीं है वो ।। मज़दूर नहीं है वो मजबूर कहो उसको ठहरा हुआ है दूर अपने घर से दो वक्त की रोज़ी के लिए बनाता रहता है  कभी तुम्हारे कभी हमारे घर तो कभी अस्पताल तो कभी कारखाने और कभी उगाता हैं अनाज सब कुछ तुम्हारे या हमारे लिए या देश के लिए। कल दिखा था मुझे एक थोड़ा डरा हुआ थोड़ा सहमा सा लगता था जैसे ठगा गया हो पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि क्या कारण है उदासी का क्योंकि शायद जानता था जवाब, हो सकता है कि किसी ने मार ली हो मज़दूरी, या फिर दी हो आधी-अधूरी, या घर में रहा हो कोई बीमार, और न रहे हो पैसे इलाज के लिए, या हो सकता है लड़की के दहेज के पैसे न हों पास, या बच्चों की पढ़ाई लग रही हो महंगी, पता था कि ऎसे ही कुछ कारण होंगे। फिर भी हिम्मत जुटाकर पूछा कि क्या है बात क्यों हो परेशान वो रो पड़ा बोला साहब पैसे न देते तो चलता मगर मारने की ज़रूरत क्या थी मैंने दस दिन की दिहाड़ी ही तो मांगी थी, इतने दिन काम लिया जब भी पैसे मांगे कल पर टाल दिया और आखिर में पैसे दिये बिना ही निकाल दिया, अब कहाँ जाऊं कैसे जाऊं घर बिना पै...

।। लहजा दर लहजा कुछ कहते थे तुम ।।

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।। लहजा दर लहजा कुछ कहते थे तुम ।। लहजा दर लहजा कुछ कहते थे तुम हिम्मत तुम्हारी दुनिया ने देखी है न झुकते थे न रुकते थे तुम लहजा दर लहजा कुछ कहते थे तुम ऋषि कोई यूँही नहीं बन जाता जो भी हो हक़ीक़त वही कहते थे तुम बंदिशें कुछ लोगों को बांधा नहीं करती कुछ यूँ ही ज़माने से बात करते थे तुम कुछ मुल्क यूँ ही नहीं महान बनते कुछ लोग चाहिए होते हैं तुम्हारे जैसे सलाम इस मुल्क को किया करते थे तुम लहजा दर लहजा कुछ कहते थे तुम #लहजा_दर_लहजा_कुछ_कहते_थे_तुम #authornitin #poem #poetry #rishikapoor