।।ये विस्तार तेरा।।
।।ये विस्तार तेरा।।
कौन सा विस्तार
कैसा विस्तार
मानव तू संकुचित रहा है
और संकुचित रहेगा।
कौन कहता है
ईश्वर है तुझमें
कौन कहता है
तू है धार्मिक।
तू सोता रहा है
तू सोता रहेगा।
अहंकार जागा
तो तुझसे ही जागा।
तू खोता रहा है
तू खोता रहेगा।
खोया है तूने
ये मन का उजाला।
खोया है तूने
ये आनंद सारा
तू खोता रहा है
तू खोता रहेगा।
ये मन के उजाले
यूँ न मिल सकेंगे।
के पाला है तूने
लालच का खंजर।
लालच जिया है
लालच जियेगा।
तू सोता रहा है
तू सोता रहेगा।
क्या याद है तुझको
प्रेम का उजाला।
तूने पिया है
तो नफरत का प्याला।
नफरत को जिता कर
तूने प्रेम है मिटाया।
भूला तू सब कुछ
सिवाय नफ़रतों के।
तू जलता रहा है
तू जलता रहेगा।
ज़रूरी नही कि
तू खंजर ही घोंपे।
ज़रूरी नहीं कि
जलाए दूसरों को।
तू जलता रहा है
तू जलता रहेगा।
ये विस्तार तेरा
तभी ही सकेगा
के लाये तू ज्योति
के प्रेम तू उगाए।
ये विस्तार तेरा
तभी हो सकेगा
के ध्यान से तू अपना
अंतर्मन जलाए।
ये विस्तार तेरा
तभी हो सकेगा
के थोड़ा तू आगे बढ़
थोड़ा दूजों को बढ़ाये।
ये विस्तार तेरा
तभी हो सकेगा
के तू विस्तार दे ज्ञान को
और अज्ञान को मिटाए।
ये विस्तार तेरा
तभी हो सकेगा
के मानव में
मानवता तू जगाए।
ये विस्तार तेरा
तभी हो सकेगा
कि प्रेम में कुछ तू डूबे
और थोड़ा औरों को डुबाये।
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