।। ज़मीर ।।
।। ज़मीर ।।
हर चीज़ का रेट बढ़ रहा है
सब कुछ महंगा होता जा रहा है
एक ज़मीर के सिवाय।
वो क्या था पहले
जिसे लोग बेचते नहीं थे
कभी-कभी सब कुछ बिक जाता
एक ज़मीर के सिवाय।
कहाँ गए वो लोग
जो झुकते नहीं थे
चाहे लालच कितना भी बड़ा हो
वो बिकते नहीं थे
चाहे बेचना पड़े सब कुछ
एक ज़मीर के सिवाय।
कभी सोचता हूँ
कि महाराणा का कद इतना बड़ा क्यों है
क्यों नहीं कोई और ले सकता महाराणा की जगह
क्योंकि महाराणा ने भी सब कुछ त्याग दिया
एक ज़मीर के सिवाय।
क्यों नहीं है अब कोई बहादुर शाह जैसा
जिसने दे दी अपनी जान
पर झुका नहीं
जिसने दे दिया सब कुछ
एक ज़मीर के सिवाय।
कहाँ है वो झांसी की रानी
जिसे कोई हरा न सका
जो सब कुछ हार गई
एक ज़मीर के सिवाय।
और आज तो हर चीज़ है बिकाऊ
और सब कुछ है महंगा
एक ज़मीर के सिवाय।
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