इंतेज़ार
इंतेज़ार
कभी एक दरिया यूँ ही छलक जाता है।
आंखे मेरी इंतेज़ार करती है तेरा,
पर निकल किसी और कि आंखों से जाता है।
ये दरिया एक कहानी कहता है।
के कभी यूँ ही तेरा इंतेज़ार करते हैं हम।
और तू सब जगह है,
ऐसा लोग कहते हैं,
बस यही सोच के खुद को बेकरार करते हैं हम।
गिला तुझसे है मगर,
के तू न हुआ इस बेकरारी में शामिल अब तक।
पर यूँ ही तेरा इंतेज़ार करते हैं हम।
के इस इंतेज़ार का मज़ा हमे आने लगा है।
तू मत आ, तेरी मर्ज़ी।
पर अब तो उस बेकरारी का भी इंतेज़ार करते है हम।
उस दरिया का भी शुक्रिया क्या अदा करूँ।
आंखे भी तो उसी की है शायद,
रोता भी तो वही है शायद,
इंतेज़ार और सिर्फ इंतेज़ार करते है हम।
यूँ ही नही मिला करते हैं खुद से,
लोगो ने अक्सर कहा हमसे।
पर ऐसे ही अक्सर दरिया पार करते हैं हम।
के कभी यूँ ही तेरा इंतेज़ार करते हैं हम।
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