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ज़्यादातर

कभी कभी ज़िंदा होते हैं तो जज़्बात भी दिख जाते हैं,
वर्ना हम मरे ही रहते हैं ज़्यादातर।
और क्यों करके कि ज़िंदा हुआ जाता है कभी कभी,
इसका एहसास भी नही रहता ज़्यादातर।
वो किसी की बिटिया का यूँ मर जाना शायद ज़िंदा कर गया हमें,
वर्ना हम मरे ही रहते हैं ज़्यादातर।
तकलीफ दे रही है ये चुप्पी के पहले क्यों न बोले कभी,
क्यों यूँ ही चुप रहा करते हैं ज़्यादातर।
इलज़ाम इसपे है के उसपे क्या फर्क पड़ता है,
रौंदी तो बेटी ही गई है ज़्यादातर।
फिक्र ये ही क्यों करें कि न्याय मिलेगा की नही,
सबूत मिला ही नही करते हैं ज़्यादातर।
और कैसे सुलझे, के मसले बहुत है इस मुल्क में,
के सिर्फ नज़रे तरेर लिया करते हैं ज़्यादातर।
मुल्क की बेहतरी की बात करते है कुछ लोग,
मगर तख्त मिलते ही नज़रे फेर लिया करते है ज़्यादातर।
और पहने देखा था खादी का कुर्ता चुनाव में जिसको,
तख़्त मिलते ही शेरवानी में दिखता है ज़्यादातर।
और ये ना बदला वक़्त रहते अभी,
तो छिपते फिरेंगे हम सब दरख्तों के पीछे ज़्यादातर।
तो छिपते फिरेंगे हम सब दरख्तों के पीछे ज़्यादातर।।

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एक दिन यूं ही न्यूज़ चैनल देख रहा था। अगर आपको याद हो तो अमिताभ बच्चन पर एक गाँव में ज़मीन ख़रीद कर अपने आप को किसानों की सूची में शामिल कराने का मामला था। खैर उस मामले में क्या हुआ मैं ये बताने नहीं जा रहा और न ही ये साबित करने जा रहा हूँ कि वे गुनहगार थे या नहीं क्योंकि मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं। लेकिन टेलीविजन पर एक किसान का इंटरव्यू दिखाया जा रहा था इसी केस के संदर्भ में। उससे रिपोर्टर ने पूछा कि क्या वो उस शख्स को जानता है जिसने गाँव की ज़मीन खरीदी है? और मैं उस किसान का जवाब सुन कर चौंक गया। उसने कहा कि वो नाम तो नहीं जानता हाँ एक आदमी है जो पोलियो की दवा बेचता है, पोस्टरों में देखा है उसको। मैं चौंका क्योंकि मैं समझता था कि अमिताभ बच्चन इतना बड़ा नाम है कि सब इस नाम को जानते होंगे, कम से कम हिन्दुस्तान में जरूर। लेकिन उस दिन मेरा भ्रम टूटा। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि यह जो नाम का नशा है ये झूठा है। एक अजीब पागलपन है ये। ये दूसरे की आँखों में  अपनी तारीफ़ देखने की ललक कुछ और नहीं सिर्फ एक गुलामी है। एक और एहसास भी हुआ उस दिन की एक और दुनिया भी है जिसमें ये किसान बसते हैं, जिसमें ये मजदूर बसते हैं। ये किसान, ये मजदूर वो हैं जो सुबह उठते हैं, फावड़ा या हल उठाते और झोंक देते हैं अपने आप को कमरतोड़ काम में। फुरसत ही कहाँ कि फिल्म देखें और जाने किसी मशहूर कलाकार को। हाँ हिन्दुस्तान को चलाने में न जाने ऐसे कितने किसान और मज़दूर रोज़ाना दिन-रात एक करते हैं।
न जाने कितने गुमनाम नामों के ॠणी हैं हम।
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